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Sunday 4 September 2011

मेरा गांव, तिवारी खरेंया - कमलेश पांडेय

विश्व के मानचित्र पर सबसे चर्चित प्रदेश,भारत के बिहार के गोपालगंज जिले में स्थित है मेरा छोटा सा गांव, तिवारी खरेंया। कुचायकोट थाना के अंतर्गत, पोस्टआफिस से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित मेरे गांव की भौगोलिक स्थिति इतनी दुरूह नहीं कि लोगों को वहां जाने में विशेष परेशानी हो, नहीं यह किसी नदी के किनारे बसा है, जहां बाढ़ आदि के कारण जल प्लावन की स्थिति का लोगों को सामना करना पड़ता है। हां, एक बड़ी नहर गांव से सटे पश्चिम से पूरब की ओर जाती है, जिसमें बरसात के दिनों में नेपाल की सीमा पर स्थित भैंसालोटन से पानी छोड़े जाने पर लोगों को पानी के दर्शन सुलभ हो जाते हैं, अन्यथा साल के और दिनों में नहर के तलछट में सूखी रेत उड़ती रहती है।
खैर, अरसे तक जिला मुख्यालय, गोपालगंज पहुंचने के लिए लोगों को सुबह तथा शाम को चलने वाली एकमात्र बस का सहारा था। वैसे हमारे गांव, अथवा यूं कहें कमोबेश बिहार तथा उत्तर प्रदेश के गांवों के लोगों को मुकदमे लड़ने का बेहद शौक रहा है। अब सुबह-शाम चलने वाली उस एकमात्र बस पर आज से दो दशक पहले तक मुकदमेबाज सवार होकर सुबह गोपालगंज कचहरी को रवाना होते थे तथा शाम को अपनी जेब की रेजगारी तक गिनकर बस के कंडक्टर को किराया चुका कर घर लौटते थे। उनकी इस आवाजाही के दौरान उन बसों में कई बार कलकत्ता कमा कर गांव-घर लौटते-जाते लोगों के अलावा कभी-कभार बकरियां आदि भी सवारी करती थीं। गोपालगंज को जा रही बस पर आमतौर पर कचहरी अथवा जिले के बाहर जा रहे लोग सवार रहते थे, ऐसी हालत में उनकी जेबें ही थोड़ी बहुत भारी रहा करती थीं, उनके पास सामान नहीं हुआ करते थे, वहीं गोपालगंज से गांवों को लौट रही बसों में कचहरी तथा जिला मुख्यालय से लौट रहे लोग कई बार सौदा, सुल्फा, खाद-बीज, शादी-ब्याह के दिनों में कपड़ा-लत्ता, डाला-मऊर आदि साथ लादकर लौटते। वहीं लगन के दिनों में कलकत्ता से सिर में चुपड़े-बहते हुए ठंडे तेल, छाता, ललमुनिया (अल्युमीनियम) का संदूक के साथ सवार रहते थे। बस के लौटने का टाइम फिक्स नहीं था, कारण सवारियां जब तक ठस नहीं जाती थीं तथा छत तक ओवरलोड नहीं हो जाता था, तब तक बस ड्राइवर और कंडक्टर महोदय को चैन ही नहीं आता था।
खैर, दिन बहुरने थे। हमारे गांव के लोगों के दिन भी फिरे। बसों को कम्पटीशन देते हुए हिन्दुस्तान मोटर्स की ट्रेकर गाड़िया सड़कों पर दौड़ने लगीं. वाकई हमारा गांव काफी गतिशील हो गया था। लोग उन ट्रेकरों पर सवार हो जाते तथा ग्यारह लोगों के बैठने के स्थान पर लगभग बीसेक लोगों के सवार हो जाते ही ट्रेकर गाड़ियां दन से गोपालगंज के लिए रवाना हो जाती थीं। वाकई क्रांति हमारे गांव के दरवाजे तक पहुंचने लगी थी।
इस क्रांति के कई स्वरूप और भी निखरकर इस दौरान सामने आने लगे थे। पहले स्कूलों में जहां कम बच्चे पढ़ने जाया करते थे और जहां तक मुझे याद है कि किसी दादा-परदादा के स्कूल-कालेज में पढ़े होने की कोई चर्चा नहीं सुनी थी, वहीं अब गांवों के हर घरों से बच्चे स्कूलों में जाने लगे थे। बड़ जात-नान जात (बड़ी जाति-छोटी जाति) का समीकरण हालांकि पूरे भारत की तरह हमारे गांवों में भी उसी प्रकार प्रभावकारी था, हालांकि इसका कोई कटु स्वरूप हमारे गांव में देखने को नहीं मिलता था। कारण कि छोटा सा गांव होने के कारण सभी लोगों को परस्पर एक दूसरे पर कई कार्यों के लिए आश्रित रहना पड़ता है, साथ ही जैसा कि मैंने पहले ही क्रांति की बात की थी, इसका एक और चेहरा हमारे गांव की नौजवान पीढ़ी में निखर कर सामने आ रहा था। सरकार की कृपा से पिछले दो दशकों में अब दारुजल सहज उपलब्ध होने लगा है। यहां तक कि बिहार के किसी भी हिस्से में आप चले जाइये, किसी भी पनवाड़ी की दुकान पर मांगिये. झट वह पाउच निकाल कर आपको पकड़ा देगा। अब, इसी मौन क्रांति के तहत खान-पान के सभी विभेदों को मिटाकर.. मेल कराती मधुशाला... के आप्त वाक्यों को हमारे गांव के नौजवानों ने अपने व्यवहार में अपना लिया। दीगर बात है कि इसे उन्होंने सामाजिक सहभागिता के तहत विकास कार्यों में नहीं अमल किया, बल्कि वे अपने विकास कार्य में जुट गये। विकास का ग्राफ बढ़ा तथा अचानक बिहार में राहजनी, लूट, बलात्कार आदि की घटनाएं बढ़ गयीं।
यकीन मानिये, गोबर पट्टी के सारे गुण-दोष हमारे इलाके के नौजवानों में उसी प्रकार समा गये, जिस प्रकार समाज में कदाचार। ऐसा नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही रहा। कई लड़के दुर्भाग्य से पढ़ाकू निकले, कई कर्मठ निकल गये लेकिन हमारे गांव का नसीब ही कुछ ऐसा खोटा निकला कि उन सभी युवाओं को बाहर निकल जाना पड़ा। कमोबेश मेरे गांव के साथ-साथ खरेंया नामधारी उन सात टोलों की यही स्थिति थी और आज भी है। इलाके में हाई स्कूल आदि कई हैं लेकिन स्नातक की पढ़ाई के लिए यहां से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर गोपालगंज के कालेजों का ही आसरा रहता है। इन दिनों तो स्कूलों में शिक्षकों की मर्यादा घटी है, इस कारण उन्हें स्कूलों में लगभग रोजाना हाजिरी बजानी पड़ती है अन्यथा पूर्ववर्ती दशकों में जब शिक्षक आदर के पात्र हुआ करते थे, तब हफ्तों-हफ्तों स्कूल से गायब रहते थे। अब ऐसी हालत में साथी शिक्षकों की जिम्मेदारी रहती थी कि उनका हस्ताक्षर रजिस्टर पर नियमित तौर पर बनता रहे।
शिक्षक जी, मुझे माफ करना, क्योंकि यह पोस्ट दुर्भाग्यवश मैंं.. शिक्षक दिवस.. के दिन ही पोस्ट कर रहा हूं। मुझे कम से कम आज के दिन ऐसा तो नहीं ही करना चाहिए था। बहरहाल सुयोग्य शिक्षकों की देखरेख में हमारे गांवों की युवा पीढ़ी पनप रही थी। दीगर बात है कि लड़कों का ध्यान पाठ में कम तथा गंवई विद्यालय में यदा-कदा पढऩे आ रही बालिकाओं में अधिक रहता था। वह दौर टेलीविजन अथवा आज की तरह मोबाइल का युग नहीं था, ऐसे में संदेश किताबों में पुरजे के जरिये इधर-उधर पहुंचा करते थे। इससे अधिक क्रांति की बात उस दौर का पढ़ाकू लड़का नहीं सोच सकता था। आखिरकार, युगधर्म का निर्वाह भी तो उसे करना होता था।
उस कालखंड में बाबा तथा पिता नामधारी पारिवारिक जीव की मर्यादा कदाचित बची हुई थी। इस कारण लड़के उनसे काफी भयभीत रहा करते थे। कई बार पाठ भूलने के क्रम में गुरुजी से भले उन्हें रिहाई मिल जाती थी लेकिन पिता नामक जीव उसे कभी नहीं बख्शता था। वहीं बाबा के चक्कर में वह लड़का कहीं पड़ गया तो उसे किलोग्राम, मिलीग्राम के बदले अंगुठा, पहुचा, ढेमचा आदि के पाठों का रट्टा मारना पड़ जाता था। और बाबा को अगर कहीं पहलवानी का शौक रहा तो, बस लड़के की दुर्गत हुई समझिये। दंड, बैठक से शुरू करने के बाद जब सपाट खींचने का आदेश जारी हो जाता, तो लड़के की तो मानो टें ही बोल जाती थी।
खैर, इन्हीं पढ़ाकू लड़कों के बीच से ही छिटक कर दारुजल ग्रहण करने वाले लड़कों की तादाद बढऩे लगी थी। अब अभिभावक भी अपने बच्चों को बाहर भेजने के लिए बाध्य हुए। धीरे-धीरे सुयोग्य कहे जाने वाले वे लड़के कालांतर में नौकरियों तथा अपनी आजीविका की तलाश में विस्थापित होने को बाध्य हुए। मेरा गांव वहीं उपेक्षित पड़ा रह गया। चीखती चीलों, तेज चुभती दुपहरिया, तपती धूल मेें जलते पांव के साथ कतार में पिछड़े उन लोगों के साथ, जिन्हें बाहर कोई ठौर नहीं मिला। वाकई मेरा गांव उदास है।

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