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Sunday 7 June 2015

जुगों से जो रही वह जुगरेहली : कथा आल्हा की तान, तीज-त्योहारों की शान की

इंतजार कीजिए मेरे गांव जुगरेहली की रोचक, रोमांचक, मोहक, मनभावन कहानी की इसी ब्लाग में-राजेश त्रिपाठी

Thursday 4 June 2015

अपने गांव किशुनपुरा के बारे में जल्द

इस साइट पर अब मैं भी मौजूद हूं : ओम प्रकाश मिश्र

Friday 22 November 2013

pratibha singh_ jiya bada ghabarata

Wednesday 7 September 2011

कहां गये वे गांव

-राजेश त्रिपाठी
गांव यानी भारत की आत्मा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादों से जोड़ देता है हमें यह शब्द। यादें खिले कमलों औल पुरइन पात से भरे तालाब की। यादें आम के बोझ से झुकी अमराइयों और कोयल की मीठी कूक की। कजरी का त्योहार, जंगल में आग की लपटों का एहसास देते टेसू (पलाश ) के फूल, होली का हुड़दंग और हुलास, मस्ती, फाग। चैत में महुआ वन की मादक महक।फूली सरसों के खेत, दीवाली , तीज-त्यौहार और भी न जाने  कितनी  उजली यादें। इनमें ही कहीं होता गांव का अलाव जहां बाबा-दादा की जुबानी परियों,किस्सा तोता-मैना, सारंगा, राजा-रानी और राक्षसों की न जाने कितनी कहानियों के संसार उभरते। कभी जाड़े में अलाव ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करते थे। पूस, माघ की हाड़ कंपा देने वाली ठिठुरन में अलाव के गिर्द जमती बड़े-बूढ़ों की महफिल। उनके बीच देश दुनिया की चर्चा होती तो कभी चलते किस्सों के दौर। गांव के चौपाल भी कम महत्व के नहीं होते थे। तब शायद ही किसी लड़ाई-झगड़े के निपटारे के लिए कोर्ट कचहरी जाना पड़ता था। इन्हें पंच परमेश्वर चौपाल में ही निपटा देते थे। चौपाल कभी ग्रामीणों के लिए दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद सुस्ताने व मनोरंजन की जगह हुआ करती थी। किस्से, कहानी, कीर्तन के अलावा ताश और चौपड़ के दौर में लोग अपना मनोरंजन करते थे। लेकिन अब न जाने कहां खो गयी वह प्यारी चौपाल जहां बातों-बातों में रिश्ते तय हो जाते और दुश्मन भी दोस्त बन जाते थे। इन्हें कुछ तो लोगों में बढ़ता दुराव और दुश्मनी खा गयी और कुछ गांवों में शहरी संस्कृति की घुसपैठ। आज गांवों में लोगों का ज्यादातर वक्त टेलीविजन खा जाता है, बचे-खुचे में वे डर के मारे घर में दुबके-सिमटे रह जाते हैं। डर दुश्मनों का जिनके हाथों में अब बरछी-भाले की जगह राइफल और पिस्तौल आ गयी है। बस फट्ट की एक आवाज और आदमी का काम तमाम।
      बचपन में अला-बला और बुरी नजर को काटने के लिए मां ने जाने कितनी बार भालू की पीठ पर बैठाया और बालों का गंड़ा बांधा होगा। यह उस वक्त की बात है जब गांवों में टेरीलिन संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था। वहां मिरजई, धोती, कुरते और पाजामे की शान थी। जाड़े में गुदड़िया बाबाओं का एक दल आता था।  वे शरीर पर रंग-बिरंगे कपड़ों की थिगलियों से बनी गुदड़ी पहने रहते थे इसलिए गुदड़िया बाबा कहलाते थे। जाड़े की ठिठुरन भरी सुबह जब लोग रजाइयों में सिमटे-सिकुड़े नौ का अंक बने होते, गुदड़िया बाबा सुबह की ग्राम परिक्रमा या कहें प्रभाती के लिए निकलते। खंजली, चिमटा  और हारमोनियम बजाते  वे गाते फिरते- दशरथ के लाल को जगायें माई  जानकी या जागिए रघुनाथ कुंअर पंछी बन बोले’। एक महीने तक वह गांव में रहते और हमारी सुबहें राग प्रभाती के उनके इन मधुर गीतों के बोलों से होती थीं। बचपन की मधुर यादों में गुदड़िया बाबा आज भी अपने मधुर गीतों के साथ हैं लेकिन अब गांवों में पहले जैसे मंगते नहीं आते। क्या करें , जमाना जो खराब आ गया है। अब तो  नंगो, चोर-उचक्कों की बन आयी है। ऐसे में गुदड़िया बाबा जैसे ग्रामीण लोकरंग के कई रंग फीके पड़ गये हैं या कहीं सीमित दायरे में सिमट कर रहने को मजबूर हो गये हैं। बंदर-भालू वालों को पशुप्रेमियों और मेनका गांधी का डर है लेकिन इनके लोप होने से गांवों से उनके कई लोकरंग छिन गये हैं।
      कभी तीज-त्योहारों में गांव गुलजार होता, मुखिया के द्वार पर जश्न का माहौल होता। अब न वह प्रेम रहा न भाईचारा। मनमुटाव और दुराव हर दिल में घर कर गया है। कई हिस्सों में बंट गये हैं गांव। जितनी जातियां, उतने टोले।हर टोले का अपना अलग नेता। गांव में जिस जाति का वर्चस्व होता है, उसी की चलती है। अब शायद ही कोई किसी के सुख-दुख में हाथ बंटाता या किसी के काम आता है। कभी भारत का आदर्श रहे गांव बंदूकों के साये में जी रहे हैं। लोग अपने पड़ोसी तक को डरवाने के लिए डाकू पालने लगे हैं। चौपाल तो जैसे अब बीती कहानी बन गयी है। अब माहौल बदल गया है। न वैसे गांव रहे,न वैसे लोग और न ही गांवों के पुराने, मोहक रीति-रिवाज। अपराधों की बाढ़ के चलते लोग शाम होते ही घरों में दुबक जाते हैं। शायद ही कहीं अलाव सजता हो या किसी चौपाल में रौनक हो।  मुखिया के द्वार पर कीर्तन की महफिलें नहीं सजतीं। वहां अब सरकारी टेलीविजन शोभता है, जो परोस रहा है फिल्मी गाने और गांव की युवा पीढ़ी हो रही है उस फिल्मी रंग-ढंग में मगन। जो बूढ़ी पीढ़ी बच गयी है वह अपने सामने एक सुनहरे गांव को उजड़ते, खत्म होते देख रही है। उसके पास गांव की पुरानी, मीठी यादों को बिसूरने के अलावा कोई चारा नहीं। आज उसकी कोई नहीं सुनता। अप्रासंगिक हो चुकी है यह पीढ़ी। बदलाव की आंधी में उसकी  नजरों के सामने ही सब कुछ उड़ता चला जा रहा है। चौपाल संस्कृति की जगह अब फिल्मी संस्कृति ने ले ली है। वह वहां के चाल-ढाल, पहनावे और जीने के तरीके में घुल गयी है। यह चकाचौंध की संस्कृति है जिसमें गांवों की सादगी, उसकी सोंधी महक दफन हो गयी है। अब गुदड़िया बाबा नहीं आते न ही किसी की आंखें ‘दशरथ के लाल को जगाये माई जानकी’ की मधुर गूंज से खुलती हैं। अब तो हर तरफ धूम है तो बस ‘अंखियों से गोली मारे लड़की कमाल’ जैसे गानों की धूम है। इनके शोर-शराबे में न जाने कहां खो गया है कल का सुहाना गांव, उसके मधुर गीत और उसके जीवंत लोकरंग।

Tuesday 6 September 2011

मेरे भाई की शादी के दृश्य-प्रतिभा सिंह





बलिया जिले के रोहुआं गांव में मेरा घर-प्रतिभा सिंह



इन्तज़ार-डॉ.अभिज्ञात

कविता

उन्नीस साल बाद लौटा था गांव
और इन्तज़ार कर रहा था कुएं पर बैठे-बैठे लौटने वालों का
बच्चों का, जो गये थे स्कूल
बाबूजी का, जो गये थे धान के खेत में
फसल कट रही थी वहां
बाबा का, जो गये थे लालगंज अपनी पेंशन बैंक से उठाने

लोगों को इन्तज़ार था डाकिये का
चाची को फ़ोन कॉल का
बेटा गया है नोए़डा रिटेल मार्केटिंग की पढ़ाई करने
मां को इन्तज़ार था काम वाली बाई का जो अब तक नहीं आयी थी
और बर्तन काफी कम मांजे गये थे उसकी आस में

आंगन को इन्तज़ार था धूप के उतरने का
कहीं कोने में लगी लौकी के पौधे को पानी का
जो कई दिन से प्यासा था

मैं जब आया तो मुझे लगा यहां बहुत कुछ था इन्तज़ार में
और मैं उसकी एक कड़ी भर था
पूरे उन्नीस साल मेरे गांव में एक मैं नहीं था इन्तज़ार करने योग्य
और कई थे जो गये थे गांव से अरसा पहले और नहीं लौटे
और लौटे तो वह नहीं थे जिसका हो रहा था इन्तज़ार
वे बदले-बदले थे

मुझे लगा इन्तज़ार एक सामूहिक एक लय है गांव में
और मैं पहुंचते ही चुपके से बन गया उसका एक हिस्सा
मैं कुएं के पास नीम की छांह में बैठे बैठे करने लगा इन्तज़ार
जैसे सब कर रहे थे
क्योंकि यह एक ऐसा काम था जिसे सब कर रहे थे
मैंने नज़र दौड़ाई
नाद अब भी वहीं जहां उन्नीस साल पहले बंधा करते थे
तीन जोड़ी बैल
लेकिन फिलहाल नहीं थे वे अपनी जगह
वे लौटेंगे घंटे दो घंटे बाद खेतों से थकहार कर मैंने अपने को समझाया
जैसे मैं लौटूंगा बीस साल बाद
शहर से
जैसे लौटे हैं चालीस साल बाद मेरे पिता
लेकिन शाम ढल गयी
गांव में बहुत कुछ लौटा
लेकिन नहीं लौटे बैल
मेरी आंखें
रह रह कर उन्हें खोजती रहीं
और फिर अगले तीन दिन भी वे नहीं लौटे जब तक मैं रहा गांव
गांव में किसी भी घर से नहीं सुनायी दी किसी भी बैल के गले में बजती हुई घंटियों की आवाज़े
उनकी ज़गह ले ली थी
ट्रैक्टर ने
मैं शहर लौट गया यह सोचते हुए
खेतों को कितना सालता होगा
बैलों का अभाव
न जाने कितने साल तक बैलों का इन्तज़ार करेंगे खेत।

Sunday 4 September 2011

मेरा गांव, तिवारी खरेंया - कमलेश पांडेय

विश्व के मानचित्र पर सबसे चर्चित प्रदेश,भारत के बिहार के गोपालगंज जिले में स्थित है मेरा छोटा सा गांव, तिवारी खरेंया। कुचायकोट थाना के अंतर्गत, पोस्टआफिस से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित मेरे गांव की भौगोलिक स्थिति इतनी दुरूह नहीं कि लोगों को वहां जाने में विशेष परेशानी हो, नहीं यह किसी नदी के किनारे बसा है, जहां बाढ़ आदि के कारण जल प्लावन की स्थिति का लोगों को सामना करना पड़ता है। हां, एक बड़ी नहर गांव से सटे पश्चिम से पूरब की ओर जाती है, जिसमें बरसात के दिनों में नेपाल की सीमा पर स्थित भैंसालोटन से पानी छोड़े जाने पर लोगों को पानी के दर्शन सुलभ हो जाते हैं, अन्यथा साल के और दिनों में नहर के तलछट में सूखी रेत उड़ती रहती है।
खैर, अरसे तक जिला मुख्यालय, गोपालगंज पहुंचने के लिए लोगों को सुबह तथा शाम को चलने वाली एकमात्र बस का सहारा था। वैसे हमारे गांव, अथवा यूं कहें कमोबेश बिहार तथा उत्तर प्रदेश के गांवों के लोगों को मुकदमे लड़ने का बेहद शौक रहा है। अब सुबह-शाम चलने वाली उस एकमात्र बस पर आज से दो दशक पहले तक मुकदमेबाज सवार होकर सुबह गोपालगंज कचहरी को रवाना होते थे तथा शाम को अपनी जेब की रेजगारी तक गिनकर बस के कंडक्टर को किराया चुका कर घर लौटते थे। उनकी इस आवाजाही के दौरान उन बसों में कई बार कलकत्ता कमा कर गांव-घर लौटते-जाते लोगों के अलावा कभी-कभार बकरियां आदि भी सवारी करती थीं। गोपालगंज को जा रही बस पर आमतौर पर कचहरी अथवा जिले के बाहर जा रहे लोग सवार रहते थे, ऐसी हालत में उनकी जेबें ही थोड़ी बहुत भारी रहा करती थीं, उनके पास सामान नहीं हुआ करते थे, वहीं गोपालगंज से गांवों को लौट रही बसों में कचहरी तथा जिला मुख्यालय से लौट रहे लोग कई बार सौदा, सुल्फा, खाद-बीज, शादी-ब्याह के दिनों में कपड़ा-लत्ता, डाला-मऊर आदि साथ लादकर लौटते। वहीं लगन के दिनों में कलकत्ता से सिर में चुपड़े-बहते हुए ठंडे तेल, छाता, ललमुनिया (अल्युमीनियम) का संदूक के साथ सवार रहते थे। बस के लौटने का टाइम फिक्स नहीं था, कारण सवारियां जब तक ठस नहीं जाती थीं तथा छत तक ओवरलोड नहीं हो जाता था, तब तक बस ड्राइवर और कंडक्टर महोदय को चैन ही नहीं आता था।
खैर, दिन बहुरने थे। हमारे गांव के लोगों के दिन भी फिरे। बसों को कम्पटीशन देते हुए हिन्दुस्तान मोटर्स की ट्रेकर गाड़िया सड़कों पर दौड़ने लगीं. वाकई हमारा गांव काफी गतिशील हो गया था। लोग उन ट्रेकरों पर सवार हो जाते तथा ग्यारह लोगों के बैठने के स्थान पर लगभग बीसेक लोगों के सवार हो जाते ही ट्रेकर गाड़ियां दन से गोपालगंज के लिए रवाना हो जाती थीं। वाकई क्रांति हमारे गांव के दरवाजे तक पहुंचने लगी थी।
इस क्रांति के कई स्वरूप और भी निखरकर इस दौरान सामने आने लगे थे। पहले स्कूलों में जहां कम बच्चे पढ़ने जाया करते थे और जहां तक मुझे याद है कि किसी दादा-परदादा के स्कूल-कालेज में पढ़े होने की कोई चर्चा नहीं सुनी थी, वहीं अब गांवों के हर घरों से बच्चे स्कूलों में जाने लगे थे। बड़ जात-नान जात (बड़ी जाति-छोटी जाति) का समीकरण हालांकि पूरे भारत की तरह हमारे गांवों में भी उसी प्रकार प्रभावकारी था, हालांकि इसका कोई कटु स्वरूप हमारे गांव में देखने को नहीं मिलता था। कारण कि छोटा सा गांव होने के कारण सभी लोगों को परस्पर एक दूसरे पर कई कार्यों के लिए आश्रित रहना पड़ता है, साथ ही जैसा कि मैंने पहले ही क्रांति की बात की थी, इसका एक और चेहरा हमारे गांव की नौजवान पीढ़ी में निखर कर सामने आ रहा था। सरकार की कृपा से पिछले दो दशकों में अब दारुजल सहज उपलब्ध होने लगा है। यहां तक कि बिहार के किसी भी हिस्से में आप चले जाइये, किसी भी पनवाड़ी की दुकान पर मांगिये. झट वह पाउच निकाल कर आपको पकड़ा देगा। अब, इसी मौन क्रांति के तहत खान-पान के सभी विभेदों को मिटाकर.. मेल कराती मधुशाला... के आप्त वाक्यों को हमारे गांव के नौजवानों ने अपने व्यवहार में अपना लिया। दीगर बात है कि इसे उन्होंने सामाजिक सहभागिता के तहत विकास कार्यों में नहीं अमल किया, बल्कि वे अपने विकास कार्य में जुट गये। विकास का ग्राफ बढ़ा तथा अचानक बिहार में राहजनी, लूट, बलात्कार आदि की घटनाएं बढ़ गयीं।
यकीन मानिये, गोबर पट्टी के सारे गुण-दोष हमारे इलाके के नौजवानों में उसी प्रकार समा गये, जिस प्रकार समाज में कदाचार। ऐसा नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही रहा। कई लड़के दुर्भाग्य से पढ़ाकू निकले, कई कर्मठ निकल गये लेकिन हमारे गांव का नसीब ही कुछ ऐसा खोटा निकला कि उन सभी युवाओं को बाहर निकल जाना पड़ा। कमोबेश मेरे गांव के साथ-साथ खरेंया नामधारी उन सात टोलों की यही स्थिति थी और आज भी है। इलाके में हाई स्कूल आदि कई हैं लेकिन स्नातक की पढ़ाई के लिए यहां से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर गोपालगंज के कालेजों का ही आसरा रहता है। इन दिनों तो स्कूलों में शिक्षकों की मर्यादा घटी है, इस कारण उन्हें स्कूलों में लगभग रोजाना हाजिरी बजानी पड़ती है अन्यथा पूर्ववर्ती दशकों में जब शिक्षक आदर के पात्र हुआ करते थे, तब हफ्तों-हफ्तों स्कूल से गायब रहते थे। अब ऐसी हालत में साथी शिक्षकों की जिम्मेदारी रहती थी कि उनका हस्ताक्षर रजिस्टर पर नियमित तौर पर बनता रहे।
शिक्षक जी, मुझे माफ करना, क्योंकि यह पोस्ट दुर्भाग्यवश मैंं.. शिक्षक दिवस.. के दिन ही पोस्ट कर रहा हूं। मुझे कम से कम आज के दिन ऐसा तो नहीं ही करना चाहिए था। बहरहाल सुयोग्य शिक्षकों की देखरेख में हमारे गांवों की युवा पीढ़ी पनप रही थी। दीगर बात है कि लड़कों का ध्यान पाठ में कम तथा गंवई विद्यालय में यदा-कदा पढऩे आ रही बालिकाओं में अधिक रहता था। वह दौर टेलीविजन अथवा आज की तरह मोबाइल का युग नहीं था, ऐसे में संदेश किताबों में पुरजे के जरिये इधर-उधर पहुंचा करते थे। इससे अधिक क्रांति की बात उस दौर का पढ़ाकू लड़का नहीं सोच सकता था। आखिरकार, युगधर्म का निर्वाह भी तो उसे करना होता था।
उस कालखंड में बाबा तथा पिता नामधारी पारिवारिक जीव की मर्यादा कदाचित बची हुई थी। इस कारण लड़के उनसे काफी भयभीत रहा करते थे। कई बार पाठ भूलने के क्रम में गुरुजी से भले उन्हें रिहाई मिल जाती थी लेकिन पिता नामक जीव उसे कभी नहीं बख्शता था। वहीं बाबा के चक्कर में वह लड़का कहीं पड़ गया तो उसे किलोग्राम, मिलीग्राम के बदले अंगुठा, पहुचा, ढेमचा आदि के पाठों का रट्टा मारना पड़ जाता था। और बाबा को अगर कहीं पहलवानी का शौक रहा तो, बस लड़के की दुर्गत हुई समझिये। दंड, बैठक से शुरू करने के बाद जब सपाट खींचने का आदेश जारी हो जाता, तो लड़के की तो मानो टें ही बोल जाती थी।
खैर, इन्हीं पढ़ाकू लड़कों के बीच से ही छिटक कर दारुजल ग्रहण करने वाले लड़कों की तादाद बढऩे लगी थी। अब अभिभावक भी अपने बच्चों को बाहर भेजने के लिए बाध्य हुए। धीरे-धीरे सुयोग्य कहे जाने वाले वे लड़के कालांतर में नौकरियों तथा अपनी आजीविका की तलाश में विस्थापित होने को बाध्य हुए। मेरा गांव वहीं उपेक्षित पड़ा रह गया। चीखती चीलों, तेज चुभती दुपहरिया, तपती धूल मेें जलते पांव के साथ कतार में पिछड़े उन लोगों के साथ, जिन्हें बाहर कोई ठौर नहीं मिला। वाकई मेरा गांव उदास है।

मेरा गांव फारेन में रहता है÷हरिराम पाण्डेय


मेरा गांव विदेश में रहता है, जी हां परदेस में नहीं 'रीयली फारेनÓ में! और मैं शहर में , कोलकाता में रहता हूूं लेकिन माफ करें......वो शहर मेरा नहीं है। शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है।
सिवान से लेकर हथुआ के बीच लगभग पचास गांव जिसमें मेरा भी गांव है खुदुरा और आसपास के गांव- हरिबलमा, पचलखी, सुजांव वगैरह- वगैरह। सबके छोकरे और नौजवान अरब के देशों में या अफ्रीकी देशों में रोजगार की तलाश में चले गये। गांव से पूरब बांध पर एक सरस्वती का मंदिर है पर वहां कोई नहीं मिलता। सरस्वती मंदिर के बारे में विस्तार आगे लिखा जायेगा। अलबत्ता , गांव के बीच में मां दुर्गा का हाल में मंदिर बनवाया कि चलो सरस्वती नहीं पूजते तो शक्ति ही पूजें। पर वहां भी यही हाल। जो चले गये वो तो चले गये जो नहीं गये वो जाने की प्रतीक्षा में हैं। यकीन करें मेरा गांव अब जीता नहीं है बस इंतजार करता है हवाला से 'रुपियाÓ लाने वाले कूरियर का या उनका जो विदेश चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन।
फागुन में अब गांव जाने की इच्छा नहीं होती। क्योंकि हमारे में गांव में अब फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और खेसारी यादव अपनी भौंडी आवाज में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं। साथ में होते हैं शराब की पाउच और रैंगलर, लीÓवाइज, क्रोकोडाइल तथा अन्य ब्रांडेड जीन्स और शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि सीधे बोतल से या पाउच से शराब पीते हैं।
बरसात में बूढ़े दालान में बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोंटा पोंछते हैं। उन्हें डर लगता है कि पोता भी बड़ा होते ही विदेश चला जाएगा। अमवसा और संक्रांति का मेला फीका लगता है क्योंकि जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर विदेश में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती ंहैं। घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं।
विदेश कभी कभी गांव आता है। लगन में या जाड़े में। 30 दिन रहता है। दो चार मिलते हैं वहां की विदेशी भाषा में डींग मारते हैं और हम जैसे अंग्रेजी दां पत्रकार मुंह ताकते हैं। क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं अरबी बोलते हैं। पेट्रो मनी की चमक होती है। कोलगेट से मांजे गए अपने दांतों से ईंख चबाने की कोशिश करते हैं और फिर ईंख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाते हैं।
फिर गांव इंतजार करता रहता है कि कब विदेश आएगा और भैंस खरीद देगा। ट्रैक्टर से खेत जोते गये खेत में लगी फसल को देख कर पुलिस सेना से रिटायर हुये दादा से पूछेगा 'ये क्या हैÓ और जवाब में दादा जी उल्टे सीधे बकेंगे। अब तो फसल काटने के गीत और खरिहान में चांदनी रात में खाना लेकर गयी बीवी के साथ 'पसीने में लथपथÓ हो कर गुनगुनाना अब तो सपना हो गया।
लोकगीत अब सीडी में बजते हैं और विदेश अब फिल्मी गाने गाता है। ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है। विदेश में दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है। शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे में लौटता है और दो रोटियां खाकर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजार में। सब कहते हैं गांव बदल गया है। हां गांव बिल्कुल बदल गया है। अब गांव भूतिया हो गया है वहां सिर्फ औरतें और बूढ़े दिखते हैं। खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है। लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो।

Wednesday 31 August 2011

कम्हरियां गांव में मेरा घर-डॉ.अभिज्ञात




गांव में घर के सामने बाएं से बाबूजी श्री लालबहादुर सिंह, भोजपुरी गायिका पत्नी प्रतिभा सिंह, मम्मी कुन्ती देवी व छोटा भाई शशिकान्त सिंह और मैं


उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के कम्हरियां गांव में मेरा घर। कम्हरियां गांव अब खुशनामपुर कहलाता
है।













गांव का घर, घर का आंगन और प्रतिभा सिंह का साथ

Saturday 27 August 2011

बारात में होता अपराध बोध


हरिराम पाण्डेय
बीती जुलाई में एक करीबी रिश्तेदार के विदेश में नौकरीशुदा सुपुत्र की शादी में बिहार के अपने गांव जाना हुआ। बारात सिवान से मीरगंज के समीप इंटवा धाम पर जानी थी। बड़ा आग्रह था तो मैंने भी सोचा गांव की शादी देखी जाए। सिवान ग्गहहोपालगंज जिले में बारातियों की खातिरदारी के बारे में काफी कुछ सुन रखा था।
मैंने भी पूरी तैयारी की। नये कपड़े सिलवाये सिलवाया, जूते खरीदे। पूरे रास्ते सोचता रहा कि कैसी आवभगत होगी वगैरह वगैरह। पहुँचे तो स्वागत हुआ सामान्य रुप से।
नाश्ता मिला। उसके बाद शादी की रस्में शुरु हुईं और बारात में मुझ जैसे लोग चुपचाप इंतजार करने लगे बेहतरीन भोजन का। समय बीतता गया और घड़ी की सुइयों के साथ ही पेट की आंतों ने क्रांति शुरु कर दी।
जनवासा जहां था सड़क की दूसरी तरफ इंटवा धाम का मंदिर और उसमें! अखंड कीर्तन। ढोल और झाल पर लगातार हरे राम हरे- कृष्णा और संन्यासियों -गृहस्थों का अबाध आवागमन। सड़क की दूसरी तरफ एक पोखर और उसी के किनारे तने शामियाने में जनवासा। जेनरेटर से बिजली और उसपर तेज धुन में बजता फिल्मी गीत- मुन्नी बदनाम हीई डार्लिंग तेर लिये। इस गीत पर बड़े फूहड़ ढंग से नाचती कमउम्र नर्तकी और उसे अश्लील इशारे करते बाराती। सड़क के किनारे मेरे जैसे इंसान की अजीब गति , एक कान में हरे राम... और दूसरे में बदनाम होती मुन्नी की आर्त पुकार और आंतों में भूख की क्रांति। वहां बैठा रहना एक विशेष प्रकार का अपराध बोध था।
आखिरकार साढ़े बारह बजे मैंने पूछ ही लिया कि भाई खाना कब मिलेगा? कुछ बुजुर्ग लोगों ने आंखों-आंखों में इशारा भी किया कि ऐसे नहीं पूछते। खैर मैं कलकत्ता वाला होने के नाते थोड़ा तो बेशर्म हो सकता था। कहा गया बस पांच मिनट में सब तैयार हो जाएगा।
उनके पांच मिनट करीब ढाई घंटे के बाद हुए। रात के दो बजे खाने के लिए बुलाया गया। जुलाई की उमस में रात, रात ही होती है। खाने पर बैठे तो प्लेटें आई जिसमें पूरियाँ, दो सब्जियाँ, और चटनी थी। और दो प्लेटों में कुछ और सब्जियाँ। पूरी तोडऩे की कोशिश की तो समझ में आया कि पूरियाँ धूप में! सुखा कर रखीं गयीं हैं। वही हाल पूरे भोजन का था। खाना ठंडा था। एक सब्जी से बदबू भी आ रही थी।
मरता क्या न करता और पूछा जाता रहा, पूरियाँ चाहिए? क्या कहता? बोल भी नहीं पाया कि खाना बहुत खराब है। बाराती जो ठहरे। कमोबेश सारे बाराती भूखे पेट वापस लौटे।
कारण समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ। लड़की के परिवार वाले अच्छे घर के हैं। सम्मानित लोग हैं फिर भी मेहमानों के साथ ऐसा व्यवहार? यह अद्भुत अनुभव लेकर मैं अपने गाँव लौट आया।
कोलकाता वापस लौटने के क्रम में गाँव से स्टेशन के लिए गाड़ी किराए पर ली। मन में बारात वाली बात ही थी। अपनी पत्नी से यही बातें कर रहा था तो ड्राइवर ने कहा, 'अरे सर आप क्या बात कर रहे हैं आजकल यहाँ शादियों में यही होता है।Ó
इससे पहले कि मैं कारण पूछता, उसने ख़ुद ही बताना शुरु कर दिया, 'सर मैं कल ही एक बारात से लौटा हूं। खाने में पनीर की सब्जी बनाया गया था लेकिन उसमें नमक और मिर्च इतना डाल दिया गया कि खाना दूभर था। बारातियों ने तो खा लिया लेकिन ड्राइवरों ने लड़की वालों से पूछ ही लिया कि भई आपने इतना मंहगा भोजन बनाया फिर इसमें इतना नमक क्यों डाल दिया है? खाना परोसनेवालों का जवाब था, दस लाख रुपए लीजिएगा तो ऐसा ही खाना खाना पड़ेगा।Ó
मेरे ड्राइवर ने किस्सा जारी रखा, हम ड्राइवरों ने पूछा कि आप लड़की वालों ने दहेज दिया, लड़के वालों ने लिया तो इसमें बारात का क्या कसूर? तो लड़की वाले बोले, जब दहेज पूरा नहीं हो रहा था तो आप ही गांव वाले थे जो कह रहे थे कि लड़के को आने नहीं देंगे शादी के लिए। अब बोलिए। लड़के की शादी हो रही है। आप यही खाइए। लड़की के बिना बारात वापस ले जाने की बात करेंगे तो मार खाइएगा।
ड्राइवर की बात सुनी तो समझ में आया कि माजरा क्या है। समझ में आया कि आजकल बिहार में बहुत से लोग बारात में शामिल होने से कतराते क्यों हैं।
गलती किसकी कहें? लड़की वाले मजबूरी में दहेज देते हैं तो अपनी नाराजगी किस पर निकालें? लड़के और लड़के के घर वालों पर तो नहीं निकाल सकते। बीच में फँसते हैं बाराती जिनके साथ की जाती है बदतमीजी। लेकिन बात बारातियों की या मेहमानों की बेइज्जती की नहीं है। बात एक सामाजिक समस्या की है जो अब एक अनोखा रुप ले रही है।
शायद वो दिन आए जब लोग बारात जाने से पहले ये कहें कि अगर दहेज लिया है तो हम बारात में नहीं आ सकेंगे।
मैंने डाक्टरों, इंजीनियरों और सरकारी अधिकारियों को दहेज लेते और देते देखा है। तर्क ये रहता है कि सामाजिक दबाव है, शादी का खर्च कौन देगा इत्यादि।
एक अलग तरह का सामाजिक दबाव बनता दिख रहा है लेकिन वो अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। बाराती किसी शादी का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं जो शादी को सामाजिक प्रामाणिकता देते हैं। अगर वो पीछे हटें तो दबाव बनता है।
मैंने तो तय कर लिया है। अब किसी की भी शादी में बारात जाने से पहले ये जरुर पूछूंगा, भाई दहेज लिया है तो बता दो। मैं नहीं आऊंगा। और अगर जाना ही पड़े तो कम से कम घर से खाना खाकर बारात में जाऊंगा।

Sunday 21 August 2011

बिहार के सिवान का खुदरा गांव : हरिराम पांडेय


बिहार के सिवान जिला स्थित मेरे खुदरा गांव का एक दृश्य

गांव गया था गांव से भागा
अक्टूबर के शुरू में गांव गया था। सिवान जिले के पचलखी पंचायत का खुदरा गांव। बड़े बूढ़े बताते हैं कि कभी इसका नाम खुदराज यानी ...सेल्फ गवर्नड... था। 18वीं सदी के उत्तरकाल में ग्राम पंचायती व्यवस्था वाला वह गांव था।
वक्त के दीमक ने और सामाजिक लापरवाही ने आखिर के ..ज.. को चाट लिया। कभी का निहायत पिछड़ा यह गांव अपने में कई किवंदंतियां लपेटे हुये है। सबसे प्रमाणिक है कि.. उत्तर प्रदेश के कन्नौज के समीप मुगलों और फिरंगियों में युद्ध में पराजय के बाद मुगल सेना के चंद सूरमा कान्यकुब्ज सरदारों में से शहादत के बाद बचे चार पांच सरदारों का समूह बिहार के हथुआ रियासत आया। सामाजिक पिछड़ेपन के कारण अज्ञातवास के लिये यह सबसे मुफीद जगह थी। हथुआ में भूमिहार राजा थे जो ब्राह्मणों से पूजा-पाठ के अलावा और कोई सेवा ले नहीं सकते थे और आने वाले पंडितों का दल अयाचक था। तलवार चलाने वाले हाथ न चंवर डुला सकते और न मंदिरों में घंटियां। इसीलिये राजा ने अपने राज के दूरदराज के कोने में जमीन का एक टुकड़ा उन्हें वृत्ति के रूप में दे दिया। वक्त ने सूरमाओं को खेतिहर बना दिया। वृत्ति आज भी वहां के ब्राह्मणों की काश्त में है पर सरकारी कागजात में वह वृत हो गयी है।..
बदलते समय के साथ आबादी बढ़ी और लोगों ने खेती- बाड़ी छोड़ कर नौकरी चाकरी शुरू कर दी। शिक्षा कभी इस गांव की प्राथमिकता सूची में नहीं रही। हालांकि इसी गांव के एक शिक्षक ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के भी शिक्षक रहे हैं। इन दिनों वहां के नौजवान विदेशों में नौकरी को ज्यादा तरजीह देते हैं और खाड़ी के देशों में नौकरियों की धूम है। मामूली पढ़े लिखे परिवारों से भरे इस गांव में विदेश से आये पैसों के प्राचुर्य ने लोगों में अनुशासनहीनता और लापरवाही भर दी है।
गांव गुम शहर की जमीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।
हर तरफ आग सी लगी क्यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

इस समय बिहार के गांव चुनाव के प्रति जागरूक हैं। शायद ही कोई गांव का निवासी ऐसा होगा, जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो। इसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे राग दरबारी का शनीचर हर जगह मौजूद है। अपनी जाति के वोट एवं लाठी की ताकत बढ़ाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढ़ाने में पूरी तरह से व्यस्त है। वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता। दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरा गांव त्रस्त है। गांव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें। इस खेल में खिलाडिय़ों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं, जो थानों में पुलिस से थोड़ी-बहुत जुगाड़ रखते हैं एवं वास्ता पड़ऩे पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं। सही मायने में यही लोग गांव में नेता हैं।
इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गांव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है। पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है। इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता। यहां पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं। गांव के कुछ समझदार व पढ़े लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गांवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गांव के स्थान पर ब्लाक व सब डिवीजन काबिज हो गये। अब केवल गांव का सचिव व कर्मचारी गांव के लिये नियुक्त होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है। अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं, यदा-कदा इनके दर्शन गांव में होते हैं।
गांव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि... 'मुखिया का चुनाव, प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।...वास्तव में ऐसा है भी, क्योंकि पूरे पांच साल तक का सम्बध, अब वोट निर्धारित करता है न कि गांव समाज का आपसी सम्बध। चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है। अब गांव के मुखिया की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गांव के विकास कार्यों के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गांव में झगड़े व रजिंशे भी बढ़ी हैं। दलित गांव घोषित होने पर सरकार गांव में पैसे की थैली खोल देती है और गांववाले दलित गांव में बनने बाली सीमेंटिड सड़क पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं। इसे रोकना झगड़े को आमंत्रण देना है। मनरेगा का पैसा गांव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन मुखिया का कायाकल्प कर दे रहा है। फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से मनरेगा के पैसे को खर्च करने पर है। गांवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ, इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गांव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है, मांस-मदिरा का सेवन बड़ी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी। इसलिये एम.एल.ए. जैसे चुनाव में प्रत्येक मुखिया व बी.डी.सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है। एम एल सी जैसे परोक्ष चुनावों में खुलकर वोटों की खरीद-फरोख्त होती है। हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पड़ेगा ही। महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस.सी,एस.टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है। महिला मुखिया चयनित गांव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हां पंचायती राज का एक प्रभाव बड़ा स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि अब गांव का कोई आदमी सरकारी दौरे को कोई तवज्जो नहीं देता, वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है।
कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
... और इस जागरुकता में गांव लोग मोह, माया, कोमलता, नफासत इत्यादि भूल गये हैं। पहले कुएं का पानी मीठा लगता है अब उसमें पक्षियों के कंकाल मिलते हैं। नहर का पानी नीला दिखता था अब वह गंदला हो गया है।
गांव के मेले में इस बार पिपुही नहीं मिली तो नातिन के लिये भोंपा खरीदना पड़ा। खुरमा और गट्टा बाजार से गायब थे और उनकी जगह बिकने वाली बेरंग जलेबियों में खमीर की खटास की जगह यीस्ट की कड़वाहट मुंह के जायके को खराब कर दे रही थी। बजरंग बली के मंदिर के चबूतरे से सटे अंडों की दुकान और सामने सड़क की पटरियों पर बकरों के गोश्त की बिक्री तेजी पर थी। बजरंग बली की मूर्ति में आकेस्ट्रा पर बजते द्विअर्थी भोजपुरी गाने और जुलूस में नाचते कूदते नौजवानों में अधिकांश के मुंह से निकलते दारू के दुर्गंध के भभके ने बचपन में देखे महाबीरी अखाड़े के मेले की रुमानियत पर मिट्टी डाल दिया।
बमुश्किल हफ्ता गुजरा और मन उचट गया। वहां से भाग निकला।
गांव गया था,गांव से भागा।
सरकारी स्कीम देखकर
पंचायत की चाल देखकर
रामराज का हाल देखकर
आंगन में दीवाल देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
नये धनी का रंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।

Saturday 20 August 2011

प्रेमचंद का गांवः लमही-डॉ.अभिज्ञात


फोटो कैप्शन
विश्वविख्यात कथाकार प्रेमचंद के गांव लमही में उनकी रचनाओं में आये चरित्रों की मूर्तियां