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Wednesday 7 September 2011

कहां गये वे गांव

-राजेश त्रिपाठी
गांव यानी भारत की आत्मा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादों से जोड़ देता है हमें यह शब्द। यादें खिले कमलों औल पुरइन पात से भरे तालाब की। यादें आम के बोझ से झुकी अमराइयों और कोयल की मीठी कूक की। कजरी का त्योहार, जंगल में आग की लपटों का एहसास देते टेसू (पलाश ) के फूल, होली का हुड़दंग और हुलास, मस्ती, फाग। चैत में महुआ वन की मादक महक।फूली सरसों के खेत, दीवाली , तीज-त्यौहार और भी न जाने  कितनी  उजली यादें। इनमें ही कहीं होता गांव का अलाव जहां बाबा-दादा की जुबानी परियों,किस्सा तोता-मैना, सारंगा, राजा-रानी और राक्षसों की न जाने कितनी कहानियों के संसार उभरते। कभी जाड़े में अलाव ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न अंग हुआ करते थे। पूस, माघ की हाड़ कंपा देने वाली ठिठुरन में अलाव के गिर्द जमती बड़े-बूढ़ों की महफिल। उनके बीच देश दुनिया की चर्चा होती तो कभी चलते किस्सों के दौर। गांव के चौपाल भी कम महत्व के नहीं होते थे। तब शायद ही किसी लड़ाई-झगड़े के निपटारे के लिए कोर्ट कचहरी जाना पड़ता था। इन्हें पंच परमेश्वर चौपाल में ही निपटा देते थे। चौपाल कभी ग्रामीणों के लिए दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद सुस्ताने व मनोरंजन की जगह हुआ करती थी। किस्से, कहानी, कीर्तन के अलावा ताश और चौपड़ के दौर में लोग अपना मनोरंजन करते थे। लेकिन अब न जाने कहां खो गयी वह प्यारी चौपाल जहां बातों-बातों में रिश्ते तय हो जाते और दुश्मन भी दोस्त बन जाते थे। इन्हें कुछ तो लोगों में बढ़ता दुराव और दुश्मनी खा गयी और कुछ गांवों में शहरी संस्कृति की घुसपैठ। आज गांवों में लोगों का ज्यादातर वक्त टेलीविजन खा जाता है, बचे-खुचे में वे डर के मारे घर में दुबके-सिमटे रह जाते हैं। डर दुश्मनों का जिनके हाथों में अब बरछी-भाले की जगह राइफल और पिस्तौल आ गयी है। बस फट्ट की एक आवाज और आदमी का काम तमाम।
      बचपन में अला-बला और बुरी नजर को काटने के लिए मां ने जाने कितनी बार भालू की पीठ पर बैठाया और बालों का गंड़ा बांधा होगा। यह उस वक्त की बात है जब गांवों में टेरीलिन संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था। वहां मिरजई, धोती, कुरते और पाजामे की शान थी। जाड़े में गुदड़िया बाबाओं का एक दल आता था।  वे शरीर पर रंग-बिरंगे कपड़ों की थिगलियों से बनी गुदड़ी पहने रहते थे इसलिए गुदड़िया बाबा कहलाते थे। जाड़े की ठिठुरन भरी सुबह जब लोग रजाइयों में सिमटे-सिकुड़े नौ का अंक बने होते, गुदड़िया बाबा सुबह की ग्राम परिक्रमा या कहें प्रभाती के लिए निकलते। खंजली, चिमटा  और हारमोनियम बजाते  वे गाते फिरते- दशरथ के लाल को जगायें माई  जानकी या जागिए रघुनाथ कुंअर पंछी बन बोले’। एक महीने तक वह गांव में रहते और हमारी सुबहें राग प्रभाती के उनके इन मधुर गीतों के बोलों से होती थीं। बचपन की मधुर यादों में गुदड़िया बाबा आज भी अपने मधुर गीतों के साथ हैं लेकिन अब गांवों में पहले जैसे मंगते नहीं आते। क्या करें , जमाना जो खराब आ गया है। अब तो  नंगो, चोर-उचक्कों की बन आयी है। ऐसे में गुदड़िया बाबा जैसे ग्रामीण लोकरंग के कई रंग फीके पड़ गये हैं या कहीं सीमित दायरे में सिमट कर रहने को मजबूर हो गये हैं। बंदर-भालू वालों को पशुप्रेमियों और मेनका गांधी का डर है लेकिन इनके लोप होने से गांवों से उनके कई लोकरंग छिन गये हैं।
      कभी तीज-त्योहारों में गांव गुलजार होता, मुखिया के द्वार पर जश्न का माहौल होता। अब न वह प्रेम रहा न भाईचारा। मनमुटाव और दुराव हर दिल में घर कर गया है। कई हिस्सों में बंट गये हैं गांव। जितनी जातियां, उतने टोले।हर टोले का अपना अलग नेता। गांव में जिस जाति का वर्चस्व होता है, उसी की चलती है। अब शायद ही कोई किसी के सुख-दुख में हाथ बंटाता या किसी के काम आता है। कभी भारत का आदर्श रहे गांव बंदूकों के साये में जी रहे हैं। लोग अपने पड़ोसी तक को डरवाने के लिए डाकू पालने लगे हैं। चौपाल तो जैसे अब बीती कहानी बन गयी है। अब माहौल बदल गया है। न वैसे गांव रहे,न वैसे लोग और न ही गांवों के पुराने, मोहक रीति-रिवाज। अपराधों की बाढ़ के चलते लोग शाम होते ही घरों में दुबक जाते हैं। शायद ही कहीं अलाव सजता हो या किसी चौपाल में रौनक हो।  मुखिया के द्वार पर कीर्तन की महफिलें नहीं सजतीं। वहां अब सरकारी टेलीविजन शोभता है, जो परोस रहा है फिल्मी गाने और गांव की युवा पीढ़ी हो रही है उस फिल्मी रंग-ढंग में मगन। जो बूढ़ी पीढ़ी बच गयी है वह अपने सामने एक सुनहरे गांव को उजड़ते, खत्म होते देख रही है। उसके पास गांव की पुरानी, मीठी यादों को बिसूरने के अलावा कोई चारा नहीं। आज उसकी कोई नहीं सुनता। अप्रासंगिक हो चुकी है यह पीढ़ी। बदलाव की आंधी में उसकी  नजरों के सामने ही सब कुछ उड़ता चला जा रहा है। चौपाल संस्कृति की जगह अब फिल्मी संस्कृति ने ले ली है। वह वहां के चाल-ढाल, पहनावे और जीने के तरीके में घुल गयी है। यह चकाचौंध की संस्कृति है जिसमें गांवों की सादगी, उसकी सोंधी महक दफन हो गयी है। अब गुदड़िया बाबा नहीं आते न ही किसी की आंखें ‘दशरथ के लाल को जगाये माई जानकी’ की मधुर गूंज से खुलती हैं। अब तो हर तरफ धूम है तो बस ‘अंखियों से गोली मारे लड़की कमाल’ जैसे गानों की धूम है। इनके शोर-शराबे में न जाने कहां खो गया है कल का सुहाना गांव, उसके मधुर गीत और उसके जीवंत लोकरंग।

1 comments:

Rahul Singh said...

झीना परदा पड़ गया है इन सब पर, लेकिन बदलते जमाने के साथ भी जितना कुछ अब भी है, वह कम नहीं.