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Tuesday 6 September 2011

इन्तज़ार-डॉ.अभिज्ञात

कविता

उन्नीस साल बाद लौटा था गांव
और इन्तज़ार कर रहा था कुएं पर बैठे-बैठे लौटने वालों का
बच्चों का, जो गये थे स्कूल
बाबूजी का, जो गये थे धान के खेत में
फसल कट रही थी वहां
बाबा का, जो गये थे लालगंज अपनी पेंशन बैंक से उठाने

लोगों को इन्तज़ार था डाकिये का
चाची को फ़ोन कॉल का
बेटा गया है नोए़डा रिटेल मार्केटिंग की पढ़ाई करने
मां को इन्तज़ार था काम वाली बाई का जो अब तक नहीं आयी थी
और बर्तन काफी कम मांजे गये थे उसकी आस में

आंगन को इन्तज़ार था धूप के उतरने का
कहीं कोने में लगी लौकी के पौधे को पानी का
जो कई दिन से प्यासा था

मैं जब आया तो मुझे लगा यहां बहुत कुछ था इन्तज़ार में
और मैं उसकी एक कड़ी भर था
पूरे उन्नीस साल मेरे गांव में एक मैं नहीं था इन्तज़ार करने योग्य
और कई थे जो गये थे गांव से अरसा पहले और नहीं लौटे
और लौटे तो वह नहीं थे जिसका हो रहा था इन्तज़ार
वे बदले-बदले थे

मुझे लगा इन्तज़ार एक सामूहिक एक लय है गांव में
और मैं पहुंचते ही चुपके से बन गया उसका एक हिस्सा
मैं कुएं के पास नीम की छांह में बैठे बैठे करने लगा इन्तज़ार
जैसे सब कर रहे थे
क्योंकि यह एक ऐसा काम था जिसे सब कर रहे थे
मैंने नज़र दौड़ाई
नाद अब भी वहीं जहां उन्नीस साल पहले बंधा करते थे
तीन जोड़ी बैल
लेकिन फिलहाल नहीं थे वे अपनी जगह
वे लौटेंगे घंटे दो घंटे बाद खेतों से थकहार कर मैंने अपने को समझाया
जैसे मैं लौटूंगा बीस साल बाद
शहर से
जैसे लौटे हैं चालीस साल बाद मेरे पिता
लेकिन शाम ढल गयी
गांव में बहुत कुछ लौटा
लेकिन नहीं लौटे बैल
मेरी आंखें
रह रह कर उन्हें खोजती रहीं
और फिर अगले तीन दिन भी वे नहीं लौटे जब तक मैं रहा गांव
गांव में किसी भी घर से नहीं सुनायी दी किसी भी बैल के गले में बजती हुई घंटियों की आवाज़े
उनकी ज़गह ले ली थी
ट्रैक्टर ने
मैं शहर लौट गया यह सोचते हुए
खेतों को कितना सालता होगा
बैलों का अभाव
न जाने कितने साल तक बैलों का इन्तज़ार करेंगे खेत।

1 comments:

Rahul Singh said...

गांव की गति कभी धीमी, कभी बदलाव की तेजी.