मेरा गांव विदेश में रहता है, जी हां परदेस में नहीं 'रीयली फारेनÓ में! और मैं शहर में , कोलकाता में रहता हूूं लेकिन माफ करें......वो शहर मेरा नहीं है। शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है।
सिवान से लेकर हथुआ के बीच लगभग पचास गांव जिसमें मेरा भी गांव है खुदुरा और आसपास के गांव- हरिबलमा, पचलखी, सुजांव वगैरह- वगैरह। सबके छोकरे और नौजवान अरब के देशों में या अफ्रीकी देशों में रोजगार की तलाश में चले गये। गांव से पूरब बांध पर एक सरस्वती का मंदिर है पर वहां कोई नहीं मिलता। सरस्वती मंदिर के बारे में विस्तार आगे लिखा जायेगा। अलबत्ता , गांव के बीच में मां दुर्गा का हाल में मंदिर बनवाया कि चलो सरस्वती नहीं पूजते तो शक्ति ही पूजें। पर वहां भी यही हाल। जो चले गये वो तो चले गये जो नहीं गये वो जाने की प्रतीक्षा में हैं। यकीन करें मेरा गांव अब जीता नहीं है बस इंतजार करता है हवाला से 'रुपियाÓ लाने वाले कूरियर का या उनका जो विदेश चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन।
फागुन में अब गांव जाने की इच्छा नहीं होती। क्योंकि हमारे में गांव में अब फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और खेसारी यादव अपनी भौंडी आवाज में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं। साथ में होते हैं शराब की पाउच और रैंगलर, लीÓवाइज, क्रोकोडाइल तथा अन्य ब्रांडेड जीन्स और शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि सीधे बोतल से या पाउच से शराब पीते हैं।
बरसात में बूढ़े दालान में बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोंटा पोंछते हैं। उन्हें डर लगता है कि पोता भी बड़ा होते ही विदेश चला जाएगा। अमवसा और संक्रांति का मेला फीका लगता है क्योंकि जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर विदेश में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती ंहैं। घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं।
विदेश कभी कभी गांव आता है। लगन में या जाड़े में। 30 दिन रहता है। दो चार मिलते हैं वहां की विदेशी भाषा में डींग मारते हैं और हम जैसे अंग्रेजी दां पत्रकार मुंह ताकते हैं। क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं अरबी बोलते हैं। पेट्रो मनी की चमक होती है। कोलगेट से मांजे गए अपने दांतों से ईंख चबाने की कोशिश करते हैं और फिर ईंख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाते हैं।
फिर गांव इंतजार करता रहता है कि कब विदेश आएगा और भैंस खरीद देगा। ट्रैक्टर से खेत जोते गये खेत में लगी फसल को देख कर पुलिस सेना से रिटायर हुये दादा से पूछेगा 'ये क्या हैÓ और जवाब में दादा जी उल्टे सीधे बकेंगे। अब तो फसल काटने के गीत और खरिहान में चांदनी रात में खाना लेकर गयी बीवी के साथ 'पसीने में लथपथÓ हो कर गुनगुनाना अब तो सपना हो गया।
लोकगीत अब सीडी में बजते हैं और विदेश अब फिल्मी गाने गाता है। ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है। विदेश में दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है। शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे में लौटता है और दो रोटियां खाकर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजार में। सब कहते हैं गांव बदल गया है। हां गांव बिल्कुल बदल गया है। अब गांव भूतिया हो गया है वहां सिर्फ औरतें और बूढ़े दिखते हैं। खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है। लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो।
Sunday 4 September 2011
मेरा गांव फारेन में रहता है÷हरिराम पाण्डेय
Posted by pandeyhariram at 03:11
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1 comments:
गांवों के मन में अभी भी हिलोर बाकी है, लेकिन हमारे पास भी तो समय नहीं होता.
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