Wednesday 7 September 2011
कहां गये वे गांव
Posted by राजेश त्रिपाठी at 06:15 1 comments
Tuesday 6 September 2011
मेरे भाई की शादी के दृश्य-प्रतिभा सिंह
Posted by Pratibha Singh at 10:56 2 comments
Labels: प्रतिभा सिंह, रोहुआं, शादी
बलिया जिले के रोहुआं गांव में मेरा घर-प्रतिभा सिंह
Posted by Pratibha Singh at 10:38 1 comments
Labels: प्रतिभा सिंह, बलिया, रोहुआं
इन्तज़ार-डॉ.अभिज्ञात
कविता
और इन्तज़ार कर रहा था कुएं पर बैठे-बैठे लौटने वालों का
बच्चों का, जो गये थे स्कूल
बाबूजी का, जो गये थे धान के खेत में
फसल कट रही थी वहां
बाबा का, जो गये थे लालगंज अपनी पेंशन बैंक से उठाने
लोगों को इन्तज़ार था डाकिये का
चाची को फ़ोन कॉल का
बेटा गया है नोए़डा रिटेल मार्केटिंग की पढ़ाई करने
मां को इन्तज़ार था काम वाली बाई का जो अब तक नहीं आयी थी
और बर्तन काफी कम मांजे गये थे उसकी आस में
आंगन को इन्तज़ार था धूप के उतरने का
कहीं कोने में लगी लौकी के पौधे को पानी का
जो कई दिन से प्यासा था
मैं जब आया तो मुझे लगा यहां बहुत कुछ था इन्तज़ार में
और मैं उसकी एक कड़ी भर था
पूरे उन्नीस साल मेरे गांव में एक मैं नहीं था इन्तज़ार करने योग्य
और कई थे जो गये थे गांव से अरसा पहले और नहीं लौटे
और लौटे तो वह नहीं थे जिसका हो रहा था इन्तज़ार
वे बदले-बदले थे
मुझे लगा इन्तज़ार एक सामूहिक एक लय है गांव में
और मैं पहुंचते ही चुपके से बन गया उसका एक हिस्सा
मैं कुएं के पास नीम की छांह में बैठे बैठे करने लगा इन्तज़ार
जैसे सब कर रहे थे
क्योंकि यह एक ऐसा काम था जिसे सब कर रहे थे
मैंने नज़र दौड़ाई
नाद अब भी वहीं जहां उन्नीस साल पहले बंधा करते थे
तीन जोड़ी बैल
लेकिन फिलहाल नहीं थे वे अपनी जगह
वे लौटेंगे घंटे दो घंटे बाद खेतों से थकहार कर मैंने अपने को समझाया
जैसे मैं लौटूंगा बीस साल बाद
शहर से
जैसे लौटे हैं चालीस साल बाद मेरे पिता
लेकिन शाम ढल गयी
गांव में बहुत कुछ लौटा
लेकिन नहीं लौटे बैल
मेरी आंखें
रह रह कर उन्हें खोजती रहीं
और फिर अगले तीन दिन भी वे नहीं लौटे जब तक मैं रहा गांव
गांव में किसी भी घर से नहीं सुनायी दी किसी भी बैल के गले में बजती हुई घंटियों की आवाज़े
उनकी ज़गह ले ली थी
ट्रैक्टर ने
मैं शहर लौट गया यह सोचते हुए
खेतों को कितना सालता होगा
बैलों का अभाव
न जाने कितने साल तक बैलों का इन्तज़ार करेंगे खेत।
Posted by डॉ.अभिज्ञात at 09:59 1 comments
Labels: कविता, डॉ.अभिज्ञात, हमारे भारतीय गांव
Sunday 4 September 2011
मेरा गांव, तिवारी खरेंया - कमलेश पांडेय
विश्व के मानचित्र पर सबसे चर्चित प्रदेश,भारत के बिहार के गोपालगंज जिले में स्थित है मेरा छोटा सा गांव, तिवारी खरेंया। कुचायकोट थाना के अंतर्गत, पोस्टआफिस से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित मेरे गांव की भौगोलिक स्थिति इतनी दुरूह नहीं कि लोगों को वहां जाने में विशेष परेशानी हो, नहीं यह किसी नदी के किनारे बसा है, जहां बाढ़ आदि के कारण जल प्लावन की स्थिति का लोगों को सामना करना पड़ता है। हां, एक बड़ी नहर गांव से सटे पश्चिम से पूरब की ओर जाती है, जिसमें बरसात के दिनों में नेपाल की सीमा पर स्थित भैंसालोटन से पानी छोड़े जाने पर लोगों को पानी के दर्शन सुलभ हो जाते हैं, अन्यथा साल के और दिनों में नहर के तलछट में सूखी रेत उड़ती रहती है।
खैर, अरसे तक जिला मुख्यालय, गोपालगंज पहुंचने के लिए लोगों को सुबह तथा शाम को चलने वाली एकमात्र बस का सहारा था। वैसे हमारे गांव, अथवा यूं कहें कमोबेश बिहार तथा उत्तर प्रदेश के गांवों के लोगों को मुकदमे लड़ने का बेहद शौक रहा है। अब सुबह-शाम चलने वाली उस एकमात्र बस पर आज से दो दशक पहले तक मुकदमेबाज सवार होकर सुबह गोपालगंज कचहरी को रवाना होते थे तथा शाम को अपनी जेब की रेजगारी तक गिनकर बस के कंडक्टर को किराया चुका कर घर लौटते थे। उनकी इस आवाजाही के दौरान उन बसों में कई बार कलकत्ता कमा कर गांव-घर लौटते-जाते लोगों के अलावा कभी-कभार बकरियां आदि भी सवारी करती थीं। गोपालगंज को जा रही बस पर आमतौर पर कचहरी अथवा जिले के बाहर जा रहे लोग सवार रहते थे, ऐसी हालत में उनकी जेबें ही थोड़ी बहुत भारी रहा करती थीं, उनके पास सामान नहीं हुआ करते थे, वहीं गोपालगंज से गांवों को लौट रही बसों में कचहरी तथा जिला मुख्यालय से लौट रहे लोग कई बार सौदा, सुल्फा, खाद-बीज, शादी-ब्याह के दिनों में कपड़ा-लत्ता, डाला-मऊर आदि साथ लादकर लौटते। वहीं लगन के दिनों में कलकत्ता से सिर में चुपड़े-बहते हुए ठंडे तेल, छाता, ललमुनिया (अल्युमीनियम) का संदूक के साथ सवार रहते थे। बस के लौटने का टाइम फिक्स नहीं था, कारण सवारियां जब तक ठस नहीं जाती थीं तथा छत तक ओवरलोड नहीं हो जाता था, तब तक बस ड्राइवर और कंडक्टर महोदय को चैन ही नहीं आता था।
खैर, दिन बहुरने थे। हमारे गांव के लोगों के दिन भी फिरे। बसों को कम्पटीशन देते हुए हिन्दुस्तान मोटर्स की ट्रेकर गाड़िया सड़कों पर दौड़ने लगीं. वाकई हमारा गांव काफी गतिशील हो गया था। लोग उन ट्रेकरों पर सवार हो जाते तथा ग्यारह लोगों के बैठने के स्थान पर लगभग बीसेक लोगों के सवार हो जाते ही ट्रेकर गाड़ियां दन से गोपालगंज के लिए रवाना हो जाती थीं। वाकई क्रांति हमारे गांव के दरवाजे तक पहुंचने लगी थी।
इस क्रांति के कई स्वरूप और भी निखरकर इस दौरान सामने आने लगे थे। पहले स्कूलों में जहां कम बच्चे पढ़ने जाया करते थे और जहां तक मुझे याद है कि किसी दादा-परदादा के स्कूल-कालेज में पढ़े होने की कोई चर्चा नहीं सुनी थी, वहीं अब गांवों के हर घरों से बच्चे स्कूलों में जाने लगे थे। बड़ जात-नान जात (बड़ी जाति-छोटी जाति) का समीकरण हालांकि पूरे भारत की तरह हमारे गांवों में भी उसी प्रकार प्रभावकारी था, हालांकि इसका कोई कटु स्वरूप हमारे गांव में देखने को नहीं मिलता था। कारण कि छोटा सा गांव होने के कारण सभी लोगों को परस्पर एक दूसरे पर कई कार्यों के लिए आश्रित रहना पड़ता है, साथ ही जैसा कि मैंने पहले ही क्रांति की बात की थी, इसका एक और चेहरा हमारे गांव की नौजवान पीढ़ी में निखर कर सामने आ रहा था। सरकार की कृपा से पिछले दो दशकों में अब दारुजल सहज उपलब्ध होने लगा है। यहां तक कि बिहार के किसी भी हिस्से में आप चले जाइये, किसी भी पनवाड़ी की दुकान पर मांगिये. झट वह पाउच निकाल कर आपको पकड़ा देगा। अब, इसी मौन क्रांति के तहत खान-पान के सभी विभेदों को मिटाकर.. मेल कराती मधुशाला... के आप्त वाक्यों को हमारे गांव के नौजवानों ने अपने व्यवहार में अपना लिया। दीगर बात है कि इसे उन्होंने सामाजिक सहभागिता के तहत विकास कार्यों में नहीं अमल किया, बल्कि वे अपने विकास कार्य में जुट गये। विकास का ग्राफ बढ़ा तथा अचानक बिहार में राहजनी, लूट, बलात्कार आदि की घटनाएं बढ़ गयीं।
यकीन मानिये, गोबर पट्टी के सारे गुण-दोष हमारे इलाके के नौजवानों में उसी प्रकार समा गये, जिस प्रकार समाज में कदाचार। ऐसा नहीं है कि सब कुछ नकारात्मक ही रहा। कई लड़के दुर्भाग्य से पढ़ाकू निकले, कई कर्मठ निकल गये लेकिन हमारे गांव का नसीब ही कुछ ऐसा खोटा निकला कि उन सभी युवाओं को बाहर निकल जाना पड़ा। कमोबेश मेरे गांव के साथ-साथ खरेंया नामधारी उन सात टोलों की यही स्थिति थी और आज भी है। इलाके में हाई स्कूल आदि कई हैं लेकिन स्नातक की पढ़ाई के लिए यहां से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर गोपालगंज के कालेजों का ही आसरा रहता है। इन दिनों तो स्कूलों में शिक्षकों की मर्यादा घटी है, इस कारण उन्हें स्कूलों में लगभग रोजाना हाजिरी बजानी पड़ती है अन्यथा पूर्ववर्ती दशकों में जब शिक्षक आदर के पात्र हुआ करते थे, तब हफ्तों-हफ्तों स्कूल से गायब रहते थे। अब ऐसी हालत में साथी शिक्षकों की जिम्मेदारी रहती थी कि उनका हस्ताक्षर रजिस्टर पर नियमित तौर पर बनता रहे।
शिक्षक जी, मुझे माफ करना, क्योंकि यह पोस्ट दुर्भाग्यवश मैंं.. शिक्षक दिवस.. के दिन ही पोस्ट कर रहा हूं। मुझे कम से कम आज के दिन ऐसा तो नहीं ही करना चाहिए था। बहरहाल सुयोग्य शिक्षकों की देखरेख में हमारे गांवों की युवा पीढ़ी पनप रही थी। दीगर बात है कि लड़कों का ध्यान पाठ में कम तथा गंवई विद्यालय में यदा-कदा पढऩे आ रही बालिकाओं में अधिक रहता था। वह दौर टेलीविजन अथवा आज की तरह मोबाइल का युग नहीं था, ऐसे में संदेश किताबों में पुरजे के जरिये इधर-उधर पहुंचा करते थे। इससे अधिक क्रांति की बात उस दौर का पढ़ाकू लड़का नहीं सोच सकता था। आखिरकार, युगधर्म का निर्वाह भी तो उसे करना होता था।
उस कालखंड में बाबा तथा पिता नामधारी पारिवारिक जीव की मर्यादा कदाचित बची हुई थी। इस कारण लड़के उनसे काफी भयभीत रहा करते थे। कई बार पाठ भूलने के क्रम में गुरुजी से भले उन्हें रिहाई मिल जाती थी लेकिन पिता नामक जीव उसे कभी नहीं बख्शता था। वहीं बाबा के चक्कर में वह लड़का कहीं पड़ गया तो उसे किलोग्राम, मिलीग्राम के बदले अंगुठा, पहुचा, ढेमचा आदि के पाठों का रट्टा मारना पड़ जाता था। और बाबा को अगर कहीं पहलवानी का शौक रहा तो, बस लड़के की दुर्गत हुई समझिये। दंड, बैठक से शुरू करने के बाद जब सपाट खींचने का आदेश जारी हो जाता, तो लड़के की तो मानो टें ही बोल जाती थी।
खैर, इन्हीं पढ़ाकू लड़कों के बीच से ही छिटक कर दारुजल ग्रहण करने वाले लड़कों की तादाद बढऩे लगी थी। अब अभिभावक भी अपने बच्चों को बाहर भेजने के लिए बाध्य हुए। धीरे-धीरे सुयोग्य कहे जाने वाले वे लड़के कालांतर में नौकरियों तथा अपनी आजीविका की तलाश में विस्थापित होने को बाध्य हुए। मेरा गांव वहीं उपेक्षित पड़ा रह गया। चीखती चीलों, तेज चुभती दुपहरिया, तपती धूल मेें जलते पांव के साथ कतार में पिछड़े उन लोगों के साथ, जिन्हें बाहर कोई ठौर नहीं मिला। वाकई मेरा गांव उदास है।
Posted by कमलेश पांडेय at 21:48 0 comments
Labels: मेरा गांव
मेरा गांव फारेन में रहता है÷हरिराम पाण्डेय
मेरा गांव विदेश में रहता है, जी हां परदेस में नहीं 'रीयली फारेनÓ में! और मैं शहर में , कोलकाता में रहता हूूं लेकिन माफ करें......वो शहर मेरा नहीं है। शहर तो शहर है वो हम सबके दिमाग में रहता है।
सिवान से लेकर हथुआ के बीच लगभग पचास गांव जिसमें मेरा भी गांव है खुदुरा और आसपास के गांव- हरिबलमा, पचलखी, सुजांव वगैरह- वगैरह। सबके छोकरे और नौजवान अरब के देशों में या अफ्रीकी देशों में रोजगार की तलाश में चले गये। गांव से पूरब बांध पर एक सरस्वती का मंदिर है पर वहां कोई नहीं मिलता। सरस्वती मंदिर के बारे में विस्तार आगे लिखा जायेगा। अलबत्ता , गांव के बीच में मां दुर्गा का हाल में मंदिर बनवाया कि चलो सरस्वती नहीं पूजते तो शक्ति ही पूजें। पर वहां भी यही हाल। जो चले गये वो तो चले गये जो नहीं गये वो जाने की प्रतीक्षा में हैं। यकीन करें मेरा गांव अब जीता नहीं है बस इंतजार करता है हवाला से 'रुपियाÓ लाने वाले कूरियर का या उनका जो विदेश चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन।
फागुन में अब गांव जाने की इच्छा नहीं होती। क्योंकि हमारे में गांव में अब फाग नहीं गाए जाते बल्कि होली वाले दिन लाउडस्पीकर पर शहर के गुड्डू रंगीला और खेसारी यादव अपनी भौंडी आवाज में छींटाकशी वाले गाने गाते हैं। साथ में होते हैं शराब की पाउच और रैंगलर, लीÓवाइज, क्रोकोडाइल तथा अन्य ब्रांडेड जीन्स और शर्ट वाले नौजवान जो भांग नहीं बल्कि सीधे बोतल से या पाउच से शराब पीते हैं।
बरसात में बूढ़े दालान में बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोंटा पोंछते हैं। उन्हें डर लगता है कि पोता भी बड़ा होते ही विदेश चला जाएगा। अमवसा और संक्रांति का मेला फीका लगता है क्योंकि जवान औरतें अब मेला नहीं जाती हैं बल्कि मोबाइल फोन पर विदेश में रह रहे पतियों या किसी और से गप्प लड़ाती ंहैं। घर से बाहर निकलती हैं और बूढ़ों की भाषा में लेफ्ट राइट करती हैं।
विदेश कभी कभी गांव आता है। लगन में या जाड़े में। 30 दिन रहता है। दो चार मिलते हैं वहां की विदेशी भाषा में डींग मारते हैं और हम जैसे अंग्रेजी दां पत्रकार मुंह ताकते हैं। क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं अरबी बोलते हैं। पेट्रो मनी की चमक होती है। कोलगेट से मांजे गए अपने दांतों से ईंख चबाने की कोशिश करते हैं और फिर ईंख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाते हैं।
फिर गांव इंतजार करता रहता है कि कब विदेश आएगा और भैंस खरीद देगा। ट्रैक्टर से खेत जोते गये खेत में लगी फसल को देख कर पुलिस सेना से रिटायर हुये दादा से पूछेगा 'ये क्या हैÓ और जवाब में दादा जी उल्टे सीधे बकेंगे। अब तो फसल काटने के गीत और खरिहान में चांदनी रात में खाना लेकर गयी बीवी के साथ 'पसीने में लथपथÓ हो कर गुनगुनाना अब तो सपना हो गया।
लोकगीत अब सीडी में बजते हैं और विदेश अब फिल्मी गाने गाता है। ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है। विदेश में दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है। शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे में लौटता है और दो रोटियां खाकर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजार में। सब कहते हैं गांव बदल गया है। हां गांव बिल्कुल बदल गया है। अब गांव भूतिया हो गया है वहां सिर्फ औरतें और बूढ़े दिखते हैं। खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है। लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो।
Posted by pandeyhariram at 03:11 1 comments