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Wednesday 31 August 2011

कम्हरियां गांव में मेरा घर-डॉ.अभिज्ञात




गांव में घर के सामने बाएं से बाबूजी श्री लालबहादुर सिंह, भोजपुरी गायिका पत्नी प्रतिभा सिंह, मम्मी कुन्ती देवी व छोटा भाई शशिकान्त सिंह और मैं


उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के कम्हरियां गांव में मेरा घर। कम्हरियां गांव अब खुशनामपुर कहलाता
है।













गांव का घर, घर का आंगन और प्रतिभा सिंह का साथ

Saturday 27 August 2011

बारात में होता अपराध बोध


हरिराम पाण्डेय
बीती जुलाई में एक करीबी रिश्तेदार के विदेश में नौकरीशुदा सुपुत्र की शादी में बिहार के अपने गांव जाना हुआ। बारात सिवान से मीरगंज के समीप इंटवा धाम पर जानी थी। बड़ा आग्रह था तो मैंने भी सोचा गांव की शादी देखी जाए। सिवान ग्गहहोपालगंज जिले में बारातियों की खातिरदारी के बारे में काफी कुछ सुन रखा था।
मैंने भी पूरी तैयारी की। नये कपड़े सिलवाये सिलवाया, जूते खरीदे। पूरे रास्ते सोचता रहा कि कैसी आवभगत होगी वगैरह वगैरह। पहुँचे तो स्वागत हुआ सामान्य रुप से।
नाश्ता मिला। उसके बाद शादी की रस्में शुरु हुईं और बारात में मुझ जैसे लोग चुपचाप इंतजार करने लगे बेहतरीन भोजन का। समय बीतता गया और घड़ी की सुइयों के साथ ही पेट की आंतों ने क्रांति शुरु कर दी।
जनवासा जहां था सड़क की दूसरी तरफ इंटवा धाम का मंदिर और उसमें! अखंड कीर्तन। ढोल और झाल पर लगातार हरे राम हरे- कृष्णा और संन्यासियों -गृहस्थों का अबाध आवागमन। सड़क की दूसरी तरफ एक पोखर और उसी के किनारे तने शामियाने में जनवासा। जेनरेटर से बिजली और उसपर तेज धुन में बजता फिल्मी गीत- मुन्नी बदनाम हीई डार्लिंग तेर लिये। इस गीत पर बड़े फूहड़ ढंग से नाचती कमउम्र नर्तकी और उसे अश्लील इशारे करते बाराती। सड़क के किनारे मेरे जैसे इंसान की अजीब गति , एक कान में हरे राम... और दूसरे में बदनाम होती मुन्नी की आर्त पुकार और आंतों में भूख की क्रांति। वहां बैठा रहना एक विशेष प्रकार का अपराध बोध था।
आखिरकार साढ़े बारह बजे मैंने पूछ ही लिया कि भाई खाना कब मिलेगा? कुछ बुजुर्ग लोगों ने आंखों-आंखों में इशारा भी किया कि ऐसे नहीं पूछते। खैर मैं कलकत्ता वाला होने के नाते थोड़ा तो बेशर्म हो सकता था। कहा गया बस पांच मिनट में सब तैयार हो जाएगा।
उनके पांच मिनट करीब ढाई घंटे के बाद हुए। रात के दो बजे खाने के लिए बुलाया गया। जुलाई की उमस में रात, रात ही होती है। खाने पर बैठे तो प्लेटें आई जिसमें पूरियाँ, दो सब्जियाँ, और चटनी थी। और दो प्लेटों में कुछ और सब्जियाँ। पूरी तोडऩे की कोशिश की तो समझ में आया कि पूरियाँ धूप में! सुखा कर रखीं गयीं हैं। वही हाल पूरे भोजन का था। खाना ठंडा था। एक सब्जी से बदबू भी आ रही थी।
मरता क्या न करता और पूछा जाता रहा, पूरियाँ चाहिए? क्या कहता? बोल भी नहीं पाया कि खाना बहुत खराब है। बाराती जो ठहरे। कमोबेश सारे बाराती भूखे पेट वापस लौटे।
कारण समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों हुआ। लड़की के परिवार वाले अच्छे घर के हैं। सम्मानित लोग हैं फिर भी मेहमानों के साथ ऐसा व्यवहार? यह अद्भुत अनुभव लेकर मैं अपने गाँव लौट आया।
कोलकाता वापस लौटने के क्रम में गाँव से स्टेशन के लिए गाड़ी किराए पर ली। मन में बारात वाली बात ही थी। अपनी पत्नी से यही बातें कर रहा था तो ड्राइवर ने कहा, 'अरे सर आप क्या बात कर रहे हैं आजकल यहाँ शादियों में यही होता है।Ó
इससे पहले कि मैं कारण पूछता, उसने ख़ुद ही बताना शुरु कर दिया, 'सर मैं कल ही एक बारात से लौटा हूं। खाने में पनीर की सब्जी बनाया गया था लेकिन उसमें नमक और मिर्च इतना डाल दिया गया कि खाना दूभर था। बारातियों ने तो खा लिया लेकिन ड्राइवरों ने लड़की वालों से पूछ ही लिया कि भई आपने इतना मंहगा भोजन बनाया फिर इसमें इतना नमक क्यों डाल दिया है? खाना परोसनेवालों का जवाब था, दस लाख रुपए लीजिएगा तो ऐसा ही खाना खाना पड़ेगा।Ó
मेरे ड्राइवर ने किस्सा जारी रखा, हम ड्राइवरों ने पूछा कि आप लड़की वालों ने दहेज दिया, लड़के वालों ने लिया तो इसमें बारात का क्या कसूर? तो लड़की वाले बोले, जब दहेज पूरा नहीं हो रहा था तो आप ही गांव वाले थे जो कह रहे थे कि लड़के को आने नहीं देंगे शादी के लिए। अब बोलिए। लड़के की शादी हो रही है। आप यही खाइए। लड़की के बिना बारात वापस ले जाने की बात करेंगे तो मार खाइएगा।
ड्राइवर की बात सुनी तो समझ में आया कि माजरा क्या है। समझ में आया कि आजकल बिहार में बहुत से लोग बारात में शामिल होने से कतराते क्यों हैं।
गलती किसकी कहें? लड़की वाले मजबूरी में दहेज देते हैं तो अपनी नाराजगी किस पर निकालें? लड़के और लड़के के घर वालों पर तो नहीं निकाल सकते। बीच में फँसते हैं बाराती जिनके साथ की जाती है बदतमीजी। लेकिन बात बारातियों की या मेहमानों की बेइज्जती की नहीं है। बात एक सामाजिक समस्या की है जो अब एक अनोखा रुप ले रही है।
शायद वो दिन आए जब लोग बारात जाने से पहले ये कहें कि अगर दहेज लिया है तो हम बारात में नहीं आ सकेंगे।
मैंने डाक्टरों, इंजीनियरों और सरकारी अधिकारियों को दहेज लेते और देते देखा है। तर्क ये रहता है कि सामाजिक दबाव है, शादी का खर्च कौन देगा इत्यादि।
एक अलग तरह का सामाजिक दबाव बनता दिख रहा है लेकिन वो अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। बाराती किसी शादी का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं जो शादी को सामाजिक प्रामाणिकता देते हैं। अगर वो पीछे हटें तो दबाव बनता है।
मैंने तो तय कर लिया है। अब किसी की भी शादी में बारात जाने से पहले ये जरुर पूछूंगा, भाई दहेज लिया है तो बता दो। मैं नहीं आऊंगा। और अगर जाना ही पड़े तो कम से कम घर से खाना खाकर बारात में जाऊंगा।

Sunday 21 August 2011

बिहार के सिवान का खुदरा गांव : हरिराम पांडेय


बिहार के सिवान जिला स्थित मेरे खुदरा गांव का एक दृश्य

गांव गया था गांव से भागा
अक्टूबर के शुरू में गांव गया था। सिवान जिले के पचलखी पंचायत का खुदरा गांव। बड़े बूढ़े बताते हैं कि कभी इसका नाम खुदराज यानी ...सेल्फ गवर्नड... था। 18वीं सदी के उत्तरकाल में ग्राम पंचायती व्यवस्था वाला वह गांव था।
वक्त के दीमक ने और सामाजिक लापरवाही ने आखिर के ..ज.. को चाट लिया। कभी का निहायत पिछड़ा यह गांव अपने में कई किवंदंतियां लपेटे हुये है। सबसे प्रमाणिक है कि.. उत्तर प्रदेश के कन्नौज के समीप मुगलों और फिरंगियों में युद्ध में पराजय के बाद मुगल सेना के चंद सूरमा कान्यकुब्ज सरदारों में से शहादत के बाद बचे चार पांच सरदारों का समूह बिहार के हथुआ रियासत आया। सामाजिक पिछड़ेपन के कारण अज्ञातवास के लिये यह सबसे मुफीद जगह थी। हथुआ में भूमिहार राजा थे जो ब्राह्मणों से पूजा-पाठ के अलावा और कोई सेवा ले नहीं सकते थे और आने वाले पंडितों का दल अयाचक था। तलवार चलाने वाले हाथ न चंवर डुला सकते और न मंदिरों में घंटियां। इसीलिये राजा ने अपने राज के दूरदराज के कोने में जमीन का एक टुकड़ा उन्हें वृत्ति के रूप में दे दिया। वक्त ने सूरमाओं को खेतिहर बना दिया। वृत्ति आज भी वहां के ब्राह्मणों की काश्त में है पर सरकारी कागजात में वह वृत हो गयी है।..
बदलते समय के साथ आबादी बढ़ी और लोगों ने खेती- बाड़ी छोड़ कर नौकरी चाकरी शुरू कर दी। शिक्षा कभी इस गांव की प्राथमिकता सूची में नहीं रही। हालांकि इसी गांव के एक शिक्षक ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के भी शिक्षक रहे हैं। इन दिनों वहां के नौजवान विदेशों में नौकरी को ज्यादा तरजीह देते हैं और खाड़ी के देशों में नौकरियों की धूम है। मामूली पढ़े लिखे परिवारों से भरे इस गांव में विदेश से आये पैसों के प्राचुर्य ने लोगों में अनुशासनहीनता और लापरवाही भर दी है।
गांव गुम शहर की जमीनों में,
आदमी खो गये मशीनों में।
हर तरफ आग सी लगी क्यूँ है,
देश के सावनी महीनों में।

इस समय बिहार के गांव चुनाव के प्रति जागरूक हैं। शायद ही कोई गांव का निवासी ऐसा होगा, जो चुनावी गणित में अपने को विशेषज्ञ न समझता हो। इसे देखकर तो ऐसा लगता है जैसे राग दरबारी का शनीचर हर जगह मौजूद है। अपनी जाति के वोट एवं लाठी की ताकत बढ़ाने के लिये आम आदमी जनसंख्या बढ़ाने में पूरी तरह से व्यस्त है। वह व्यस्त रहने के लिये और कोई काम नहीं करता। दबी-छुपी बेरोजगारी से पूरा गांव त्रस्त है। गांव के कई स्थानों पर लोग गोल घेरे में बैठे हुये ताश या जुआ खेलते मिल जायेंगें। इस खेल में खिलाडिय़ों की साख को ऐसे युवक प्रमाणित करते हैं, जो थानों में पुलिस से थोड़ी-बहुत जुगाड़ रखते हैं एवं वास्ता पड़ऩे पर किसी भी विवाद में दान-दक्षिणा देकर मामले को रफा-दफा कर सकतें हैं। सही मायने में यही लोग गांव में नेता हैं।
इस मामले में बाबा रामदेव का कथन सही दिखता है कि गांव की राजनीति थानों व ब्लाकों से चलती है। पुलिस का एक सिपाही या दरोगा किसी की नेतागिरी हिट कर सकता है या उसे पलीता लगा सकता है। इसलिये आमतौर पर नेतागिरी की इच्छा रखने वाला कोई भी आदमी पुलिस के खिलाफ नहीं जाता। यहां पुलिस पंचायतों के अनुसार नहीं चलती बल्कि पंचायतें पुलिस के अनुकूल कार्य करती हैं। गांव के कुछ समझदार व पढ़े लिखे लोग बताते हैं कि पंचायती राज कानून के बनने से पहले आजादी के बाद ग्राम स्वराज की संकल्पना में गांवों को विकास का केन्द्र बनाया जाना प्रस्तावित था लेकिन पता नहीं फिर कब व कैसे, गांव के स्थान पर ब्लाक व सब डिवीजन काबिज हो गये। अब केवल गांव का सचिव व कर्मचारी गांव के लिये नियुक्त होता है लेकिन उसका कार्यालय ब्लाक व तहसील में होता है और उनकी असली ताकत जिला मुख्यालय पर होती है। अब प्रधान उनकी बाट जोहते हैं, यदा-कदा इनके दर्शन गांव में होते हैं।
गांव में एक कहावत बहुत प्रचलन में है कि... 'मुखिया का चुनाव, प्रधानमंत्री के चुनाव से ज्यादा कठिन है।...वास्तव में ऐसा है भी, क्योंकि पूरे पांच साल तक का सम्बध, अब वोट निर्धारित करता है न कि गांव समाज का आपसी सम्बध। चुनाव में यह स्पष्ट रहता है कि किसने किसको वोट दिया है। अब गांव के मुखिया की हैसियत पहले के विधायक की बराबर है। यह भी बिल्कुल सच है क्योंकि अब गांव के विकास कार्यों के लिये इतना ज्यादा पैसा आता है कि उसमें हिस्सेदारी की कीमत किसी भी रंजिश को बरदाश्त कर सकती है। इस कारण से गांव में झगड़े व रजिंशे भी बढ़ी हैं। दलित गांव घोषित होने पर सरकार गांव में पैसे की थैली खोल देती है और गांववाले दलित गांव में बनने बाली सीमेंटिड सड़क पर भैंस व बैल बांधकर उपयोग में ला रहें हैं। इसे रोकना झगड़े को आमंत्रण देना है। मनरेगा का पैसा गांव का कायाकल्प करे या न करे लेकिन मुखिया का कायाकल्प कर दे रहा है। फर्जी मजदूरी का भुगतान मस्टर रोल पर दिखाया जा रहा है। शासन का जोर अभी पूरी तरह से मनरेगा के पैसे को खर्च करने पर है। गांवों में इस धन से कितनी परिसम्पत्तियों का निर्माण हुआ, इसका आकलन व प्रमाणन बाद में किया जायेगा। इसी प्रकार लगभग दर्जनों लाभकारी योजनाओं ने पंचायत चुनावों को मंहगा कर दिया है। गांव में शाम होने का इतंजार भी नहीं किया जा रहा है, मांस-मदिरा का सेवन बड़ी बेतक्कुलफी से किया जा रहा है। अब स्वाभाविक है कि जब ज्यादा पैसा खर्च होगा तो कमाई भी उसी अनुपात में की जायेगी। इसलिये एम.एल.ए. जैसे चुनाव में प्रत्येक मुखिया व बी.डी.सी, मेम्बर को मोटी रकम मिल जाती है। एम एल सी जैसे परोक्ष चुनावों में खुलकर वोटों की खरीद-फरोख्त होती है। हम इन चुनावों के समय आचार संहिता के अनुपालन पर ध्यान नहीं दे पायेंगें तो इसका असर देश में सांसदों के चुनाव तक पर पड़ेगा ही। महिलाओं के आरक्षण का सवाल हो या एस.सी,एस.टी आरक्षण का मसला चुनाव की असली डोर पुरूषों व प्रभु जातियों के हाथ में है। महिला मुखिया चयनित गांव में कभी किसी बैठक में आप उस महिला को नहीं देखेंगें जो वास्तव में प्रधान है। हां पंचायती राज का एक प्रभाव बड़ा स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि अब गांव का कोई आदमी सरकारी दौरे को कोई तवज्जो नहीं देता, वो केवल फायदे के सरकारी कारकून को पहचानता है।
कुछ भी हो इतना सच है कि पंचायती राज ने लोकतंत्र के निचले पायदान पर खुशहाली को चाहे चंद आदमी तक ही पहुंचाया हो लेकिन आम आदमी को राजनैतिक रूप से जागरूक अवश्य किया है।
... और इस जागरुकता में गांव लोग मोह, माया, कोमलता, नफासत इत्यादि भूल गये हैं। पहले कुएं का पानी मीठा लगता है अब उसमें पक्षियों के कंकाल मिलते हैं। नहर का पानी नीला दिखता था अब वह गंदला हो गया है।
गांव के मेले में इस बार पिपुही नहीं मिली तो नातिन के लिये भोंपा खरीदना पड़ा। खुरमा और गट्टा बाजार से गायब थे और उनकी जगह बिकने वाली बेरंग जलेबियों में खमीर की खटास की जगह यीस्ट की कड़वाहट मुंह के जायके को खराब कर दे रही थी। बजरंग बली के मंदिर के चबूतरे से सटे अंडों की दुकान और सामने सड़क की पटरियों पर बकरों के गोश्त की बिक्री तेजी पर थी। बजरंग बली की मूर्ति में आकेस्ट्रा पर बजते द्विअर्थी भोजपुरी गाने और जुलूस में नाचते कूदते नौजवानों में अधिकांश के मुंह से निकलते दारू के दुर्गंध के भभके ने बचपन में देखे महाबीरी अखाड़े के मेले की रुमानियत पर मिट्टी डाल दिया।
बमुश्किल हफ्ता गुजरा और मन उचट गया। वहां से भाग निकला।
गांव गया था,गांव से भागा।
सरकारी स्कीम देखकर
पंचायत की चाल देखकर
रामराज का हाल देखकर
आंगन में दीवाल देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।
नये धनी का रंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गांव गया था, गांव से भागा।

Saturday 20 August 2011

प्रेमचंद का गांवः लमही-डॉ.अभिज्ञात


फोटो कैप्शन
विश्वविख्यात कथाकार प्रेमचंद के गांव लमही में उनकी रचनाओं में आये चरित्रों की मूर्तियां